कौन राय बहादुर थे जिन्होंने कुली बेगार प्रथा को ब्रिटिश शासन का कलंक घोषित किया
कोटद्वार : तारा दत्त गैरोला का जन्म 6 जून 1875 ई को टिहरी गढ़वाल राज्य की बढ़ियरगढ़ पट्टी के दालढुंग गांव में हुआ था । इनके पिता का शुभ नाम श्री ज्वाला राम गैरोला था । स्थानीय स्कूलों में प्रारंभिक शिक्षा पाने के बाद इन्होंने बरेली कॉलेज में अध्ययन किया। वहां से सन 1897 में इन्होंने बीए परीक्षा उत्तीर्ण की और कॉलेज भर में सर्वप्रथम रहने के कारण टेंपलटन स्वर्ण पदक हासिल किया । तदुपरांत ये म्योर सैंट्रल कॉलेज इलाहाबाद चले गए। वहां से 1899 में एमए तथा 1900 में ये वकील हाईकोर्ट की परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए।
इस प्रकार शिक्षा और डिग्रियों से सुसज्जित होकर इन्होंने 1901 से देहरादून में वकालत शुरू की । परिश्रमी और अध्ययन अध्यवसाय ये थे ही , इसलिए इनकी प्रेक्टिस चमक उठी और यह यहां एक प्रथम श्रेणी के वकील गिने जाने लगे। देहरादून में वहीं इन्होंने अपना सार्वजनिक व साहित्यिक जीवन का प्रारंभ किया । कतिपय उत्साही युवकों के साथ मिलकर इन्होंने 19 अगस्त सन 1901 ई को गढ़वाल यूनियन अथवा गढ़वाल हित प्रचारिणी सभा की स्थापना की और यह उसके मंत्री चुने गए। इस यूनियन की ओर से सन 1905 में मासिक गढ़वाली का प्रकाशन प्रारंभ किया गया । यह उसके संपादक मंडल के सदस्य चुने गए। उन दिनों श्री तारा दत्त गैरोला, श्री चंद्र मोहन रतूड़ी और श्री गिरजा दत्त नैथानी की त्रिमूर्ति ने गढ़वाली और गढ़वाली यूनियन के द्वारा सुधार और जागृति का संदेश सुप्त गढ़ समाज के कानों तक पहुंचाया। वह विभिन्न समस्याओं पर गणवेशणापूर्ण लेख लिखा करते थे । बहुत कुछ इन्हीं की योग्यता के कारण उन दिनों गढ़वाली एक प्रथम श्रेणी का पत्र समझा जाने लगा था , और उसे समय के हिंदी समाचार पत्रों ने उसकी उत्साहवर्धक आलोचना की थी।
इस प्रकार देहरादून में यह अपना निवास स्थान बना ही चुके थे कि अचानक 15 मई 1906 को उनकी माता जी का देहांत हो गया और उसके 6 दिन बाद उनकी प्रथम पत्नी भी स्वर्ग सिधार गई । इसलिए देहरादून से विदाई लेकर इन्होंने पौड़ी को स्थाई केंद्र बना लिया। इनके पास मुव्वकिलों की भरमार रहने लगी और शीघ्र इनकी वकालत शिखर पर पहुंच गई। पर अपने मुंह वकीलों को सताने या व्यर्थ की मुकदमाबाजी बढ़ाने पर इनका विश्वास नहीं था। यह हमेशा नर्मता की मूर्ति रहे । कम से कम फीस ली और अक्सर यह कोशिश की कि दोनों पक्षों में राजी नामा हो जाए। यह कानून के विद्वान थे। विशेष कर कुमाऊं प्रदेश के कानून व नियमों के संशोधन कराने तथा उनको लिपिबद्ध (कोडिफाइड) करने के लिए इन्होंने प्रबल प्रयत्न किया। जिन दिनों यह प्रांतीय काउंसिल के सदस्य थे , उन दिनों कुमाऊं प्रदेश के माली व स्थानीय कानून को लिपिबद्ध करने के लिए स्टॉल वेल कमेटी की नियुक्ति की गई थी। उस समिति के एक सदस्य की हैसियत से इन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया। कांग्रेसी मंत्रिमंडल द्वारा सन 1938 में एक कुमाऊं लॉज कमेटी नियुक्त की गई। यह एक विशेषज्ञ के रूप में उसके साथ सम्मिलित किए गए थे । इसके अतिरिक्त उनके समय तक कुमाऊं की अदालत में माली मुकदमों पर जो महत्वपूर्ण फैसले हुए थे ,इन्होंने परिश्रम के साथ उनके संग्रह किया और गवर्नमेंट ने अपने खर्चे पर उन्हें प्रकाशित कराया। उसे पुस्तक का नाम है सिलेक्टेड लैंड रेवेन्यू डिसीजंस ऑफ कुमाऊं उस पुस्तक की प्रस्तावना बोर्ड ऑफ़ रेवेनुए के तत्कालीन सीनियर मेंबर कर डिग्बी ड्रेक ब्रुकमैन ने लिखी है और वह कुमाऊं प्रदेश के वकीलों के लिए एक पथ प्रदर्शक पुस्तक है।
गढ़वाल आगमन से लगभग सन 1920 तक यह यहां के सार्वजनिक जीवन में सर्वोच्च स्थान को ग्रहण किए रहे । उन दिनों मिंटो मार्लो सुधार के अंतर्गत प्रांतीय काउंसिल के लिए सारे कुमाऊं प्रांत से एक ही सदस्य नाम जद किया जाता था। उस पद पर 1906 से 1913 तक महाराज कीर्ति शाह रह चुके थे। उनकी मृत्यु के उपरांत गवर्नमेंट ने इन्हें नामजद किया और यह माननीय (Honarable) कहलाने लगे।
एक गैर सरकारी गढ़वाली का उस पद पर नियुक्त होना गढ़वाल के लिए गौरव की बात थी । यह उस पद पर 1914 से 1920 तक रहे और वहां इन्होंने बड़ी योग्यता से कार्य किया। काउंसिल से बाहर ये पौड़ी रहते हुए भी गढ़वाल यूनियन को सहयोग देते रहे तथा गढ़वाली के संपादन कार्य में सहायता लेते रहे। बाद में जब गढ़वाल की सब संस्थाएं मिलकर गढ़वाल सभा की स्थापना हो गई तब यह उसके भी सहायक और स्तंभ बन गए। उन्हीं दिनों कुमाऊं के तीनों जिलों के समान हितों की रक्षा के लिए कुमाऊं परिषद का जन्म हुआ। उसका प्रथम अधिवेशन दिसंबर सन 1917 में कोटद्वार में हुआ था। तब ये उसके स्वागत अध्यक्ष थे । अगले वर्ष उसका अधिवेशन हल्द्वानी में मनाया गया तथा यह उसके सभापति चुने गए। इस अवसर पर जनता में उनके प्रति इतना उत्साह था कि जिस गाड़ी पर बैठकर इनका जुलूस निकालने वाला था, लोगों ने उसके घोड़े खोल दिए और स्वयं अपने हाथों से खींच कर उसे सभा मंडप तक ले गए।
कुली बेकार की अमानुष प्रथा को मिटाने के लिए यह सतत प्रयत्नशील रहे। इस उद्देश्य से लेखनी और भाषणों से आंदोलन करने के अतिरिक्त इन्होंने जोत सिंह नेगी को कुली एजेंसी की स्थापना में सहयोग दिया, तथा उनके चंपावत परिवर्तित हो जाने के बाद उसका सेक्रेटरी पद संभाला। जिसे यह कई वर्ष तक योग्यता के साथ निभाते रहे । काउंसिल के अंदर नरम स्वभाव के होते हुए भी इस विषय पर इन्होंने गरमपंथी वक्तव्य दिए। यहां तक कि जब 30 मार्च सन 1919 को श्रीनगर में प्रथम विश्व महायुद्ध में विजय प्राप्ति का तथा उसके साथ ही कुमाऊं में ब्रिटिश अधिकार के 100 वर्ष पूरे होने का कुमाऊं शताब्दी उत्सव मनाया गया तब कमिश्नर व जिला अध्यक्ष आदि उच्च अधिकारियों की उपस्थित होते हुए भी इन्हें सर्व प्रमुख गैर सरकारी व्यक्ति होने के नाते उसे समारोह का अध्यक्ष चुना गया । लेकिन उसे मंच से भी इन्होंने उसे प्रथा को ब्रिटिश शासन के लिए कलंक घोषित करते हुए उसके तुरंत समूल उन्मूलन की मांग की। सुनने वाले स्तब्ध रह गए ।
प्रथम विश्व युद्ध में अधिकांश भारतीय नेताओं की तरह ब्रिटिश सरकार को सहयोग देने में ही इन्हें भारत की मुक्ति की आशा हुई। अतः इन्होंने सहर्ष सहयोग दिया । यह जिला युद्ध सहायक समिति के मंत्री और जिला फौजी पत्रिका जिला वार शीट के संपादक नियुक्त किए गए । इस उपलक्ष्य में इन्हें सन 1917 में राय बहादुर की पदवी प्रदान की गई। उन्हीं दिनों सन 1917 – 18 में का कुख्यात अकाल पड़ा। उस अवसर पर विभिन्न सहायता समितियां के कार्य को व्यवस्थित करने के लिए केंद्रीय काल निवारण समिति की स्थापना की गई और यह उसके मंत्री नियुक्त किए गए । उस पद पर इन्होंने 1920 तक कार्य किया और उसके बाद को बचे हुए रूपों के सदुपयोग के लिए एक स्थाई फेम रिलीफ कमिटी बना दी । यह स्वयं मृत्यु पर्यंत तक उसे कमेटी के सदस्य रहे।
अकाल सहायता संबंधी कार्यों के लिए गवर्नमेंट ने इन्हें केसरे हिंद पदक प्रदान किया। शिक्षा प्रसार के हर कार्य में यह सहयोग देते थे। लेकिन इस दिशा में इनका सबसे बड़ा कार्य श्री चंद्रवल्लभ स्मारक छात्रवृत्ति ट्रस्ट की स्थापना करना रहा। इस ट्रस्ट की सन 1940 की रिपोर्ट में लिखा गया है कि गैरोला जी का शुरू से ही इस ट्रस्ट से बड़ा घना संबंध रहा है । उसकी व्यवस्था और नियम बनाने में उनका बड़ा हाथ था । यदि इस कोष के दानी रायबहादुर पंडित घनानंद खंडूड़ी को पंडित तारा दत्त जी दूसरी सलाह देते तो संभव था कि बजाय छात्रवृत्ति वितरण संस्था के यह ट्रस्ट कोई अन्य रूप धारण करता। संभव था कि यह स्मारक अस्पताल का रूप धारण कर लेता। इस ट्रस्ट के सन 1921 में स्थापित होने से सन 1933 तक ये इसके सेक्रेटरी रहे।
मंदिरों के सुधार में यह सतत प्रयत्नशील रहे तक संबंधी साहित्य का गहरा अध्ययन करने के कारण यह उसे विषय के एक विशेषज्ञ बन गए थे इसलिए गवर्नमेंट इस बारे में उनकी राय लेती रहती थी। श्री बद्रीनाथ मंदिर सुधार के भी यह प्रबल पक्ष पाती थे। सन 1939 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने इस विषय पर जो कानून बनाया वह बहुत कुछ इन्हीं के ड्राफ्ट पर आधारित था, और उसे कानून के बन जाने के बाद इन्हें हार्दिक प्रसन्नता हुई थी। जंगलों के प्रबंधन व विकास के संबंध में भी यह एक विशेषज्ञ माने जाते थे । इसलिए कुमाऊं फॉरेस्ट कमिटी की स्थापना से मृत्यु पर्यंत यह उसके सदस्य रहे। पंचायती जंगलों के यह बहुत कायल थे। इन पंचायत का प्रसार करने के लिए इन्होंने शासन पर बहुत जोर डाला। यह कहा जाता है कि इस विषय पर आजकल जो विधान व नियमावली चालू है वह इन्हीं की तैयार की हुई है।
टिहरी गढ़वाल राज्य के यह पूरे सहायक थे । महाराजा कीर्ति शाह से बरेली के विद्यार्थी जीवन में इनका अच्छा परिचय हो गया था। वह इन्हें बहुत मानते थे और इसलिए उन्होंने इन्हें अपने राज्य का कानूनी सलाहकार नियुक्त किया । उस पद पर यह लगभग 15 वर्ष तक कार्य करते रहे । लेकिन राज्य शक्ति के प्रति आस्था रखते हुए भी यह प्रजा हित के पक्षपाती थे, और अन्याय व अत्याचार का विरोध करने से नहीं हिचकते थे। उदाहरण स्वरूप को कुख्यात रवाई गोलीकांड के सिलसिले में इन्होंने प्रजा पक्ष का प्रबल समर्थन किया। उस अवसर पर पर मूक प्रजा का समर्थन करने के कारण इन पर स्वयं मानहानि का मुकदमा चल गया था । लेकिन इन्होंने साहस व योग्यता के साथ स्थिति का मुकाबला किया और हाई कोर्ट से बरी हो गए।